
वंशवाद बनाम आम आदमी - लोकतंत्र में वंशवाद का बढ़ता प्रभाव? भारत एक प्रजातांत्रिक देश अवश्य है लेकिन यहां प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा आजादी के कुछ समय बाद तक अवश्य हुई होगी इस से इनकार नहीं किया जा सकता ?लेकिन 90 के दशक के बाद जैसे जैसे इस देश के अंदर फासिस्टवाद की ताकतों का प्रभाव बड़ा उन्होंने लोकतंत्र को अपने ढंग से परिभाषित करना प्रारंभ कर दिया !आज लोकतंत्र जिन प्रश्नों पर उलझा हुआ है ! उनमें एक प्रश्न वंशवाद का है ?जो चुनाव के समय प्रखरता से सुना जाता है? इसके बाद दूसरा मसला राष्ट्रवाद का आ जाता है? फिर उसके साथ गाय :राम मंदिर :काशी: मथुरा: रामेश्वरम तक उठने लगते है? किसी भी व्यक्ति ने वोट देने से पहले यह नहीं सोचा कि इस देश में गुलामी के समय में भी धर्म के नाम पर जाति के नाम पर आवाज उठाने वाले लोग आखिर कहां खड़े थे? आप विचार करेंगे आप पाएंगे वह लोग अंग्रेजों के बगल गीर थे ?दुर्भाग्य ऐसे ही लोग आज वंशवाद राष्ट्रवाद जैसे बेबुनियाद सवालों को खडाकर आम आदमी को भ्रमित कर रहे हैं ?देश के अंदर बढ़ती महंगाई: बाजारवाद की परंपरा को मिल रहा बढ़ावा घटता उत्पादन बढ़ती बेरोजगारी किसान आत्महत्या ? घटती खेती !खेती योग्य भूमि निरंतर घट रही है ?बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बोलबाला देश के अंदर बढ़ रहा है! एक ईस्ट इंडिया कंपनी ने अकेले पूरे भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश सब को गुलाम बना रखा था ?आज तो देश के अंदर अनगिनत बहुराष्ट्रीय कंपनियां आ रही है न जाने कौन कंपनी किस छोर को अपना साम्राज्य बता देगी ? दुर्भाग्य है लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है लेकिन जनता जिन्हे वोट देती है वह 5 वर्ष के लिए चुने जाते हैं ?संख्या बल के आधार में इतने वे अहंकार में चूर होते हैं कि उन्हें आम जनता के दर्द से कोई पीड़ा नहीं होती और वह लोकतांत्रिक मूल्यों को भूल कर राजतंत्रीय तानाशाही व्यवस्था को बढ़ावा देने लगते हैं? जिस के चक्कर में आम आदमी का जीना दुश्वार हो जाता है विसलरी का पानी पीने वाले एसी कमरों में रहने वाले गांव के उस व्यक्ति की भलाई की बात करते हैं? जिसके पास अपनी छत भी नहीं है पूरा देश जान रहा है गरीबी गंदगी के साम्राज्य को बढ़ाती है? जिन कपड़ों पर लोग हाथ पोछना पसंद नहीं करते आज भी गांव में वह पहने जाते हैं ?लेकिन हमारे राजनेता बड़े-बड़े सपने दिखाते हैं और फिर कहते हैं यह सब 5 वर्ष में नहीं आगे आने वाले 10 वर्ष बाद साकार होंगे ?आप ही बतावे की भूखे को रोटी चाहिए या राष्ट्रवाद :गाय अगर माता है तो जनता क्या ? गंगा अगर पवित्र है तो गांव का तालाब क्या जिस से जिस की छुधा शान्त हो उसके लिए वही स्थान पूज्य और श्रेष्ठ है? मुझे दुख होता है टीवी चैनलों पर सभी पार्टियों के प्रवक्ता आते हैं वह दिल्ली और प्रदेश की राजधानियां छोड़ करके कहीं नहीं जाते पर TV पर संपूर्ण विषयों के वह मास्टर होते हैं हर विषय पर वह अपना और अपनी पार्टी का पक्ष प्रस्तुत करते हैं और टीवी सोशल मीडिया एवं समाचार पत्रों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर सरकार की नीतियों का गुणगान किया जाता है इन दिनों उत्तर प्रदेश में ऋण मोचन कार्यक्रम प्रत्येक जनपद में चल रहा है मुझे नहीं मालूम कि इसमें कितना धन व्यय होगा लेकिन इतना अवश्य है जिसे मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि जितना किसान का कर्ज नहीं माफ होगा उससे अधिक का व्य इस ढिंढोरा पीटने में होगा इस देश का दुर्भाग्य है? उद्योगपतियों के कर्ज चुपके से माफ होते हैं गरीबों और किसानों के कर्ज ढोल पीट करके माफ किए जाते हैं ?भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री लोकसभा चुनाव के दरमियान कहते थे कि हम किसी समुदाय विशेष को वोट के चक्कर में नहीं देखते हम सभी का साथ और सभी के विकास की बात करते हैं क्या वह सपना या वह बातें उनकी सच है उद्योगपति मालामाल हो रहा है गरीब गरीब होता जा रहा है अब तो सरकार की नीतियों के चलते मध्यम श्रेणी का भी रह पाना मुश्किल काम हो गया है वंशवाद की चर्चा या यह आवाज वही गणमान्य उठाते हैं जिन्होंने स्वयम वंशवाद को प्रश्रय दिया है मुझे एक उदाहरण आता है लखनऊ के बड़े पत्रकार स्वर्गीय श्री चेला पतिराव थे जिनके पुत्र के विक्रम राव आजकल उत्तर प्रदेश के बड़े पत्रकार बताए जाते हैं और उन्होंने अपने पुत्र को भी अपनी विरासत सौंपने का कार्यक्रम जारी रखा हुआ है उन्हें उन्होंने पत्रकार संगठन का नेता बना दिया है जिस संगठन के वे अगुआ है अब वह वंशवाद पर अगर कोई लेख लिखते हैं यह उसी तरीके से हुआ जैसे चोर चोरी न करने का प्रवचन कर रहा हो ?हमें वंशवाद राष्ट्रवाद धर्मवाद जातिवाद से अलग हटकर समाज निर्माण महंगाई भ्रष्टाचार बेरोजगारी भुखमरी किसान आत्महत्या कृषि और उत्पादन जैसी महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं पर ध्यान आकृष्ट कर ना चाहिए? लेकिन कौन जाने हमारे नेता लोग जनता को चुनाव के समय ऐसे वादों में बसाकर अपना बहुमत बनाते हैं ?और सरकार चलाते हैं फिर फैसले जनविरोधी लेते हैं जिस से न तो मनुष्य का निर्माण हो रहा न राष्ट्र का हो रहा है ? युग जागरण --लखनऊ