आलेख

पेट दर्द के लिए सिर दर्द की गोली !

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

पहले हमें हमारे सिवाय कोई दिखाई नहीं देता था। जहाँ देखो वहाँ हमीं हम बने रहने की बड़ी चुल मची रहती थी। वैसे वह चुल अभी भी है, लेकिन जब से कुकुरमुत्तों की तरह साहित्यिक संस्थाओं का जन्म हुआ है तब से मारा-मारी बढ़ गई है। हर कोई अपनी-अपनी संस्था रूपी दुकान खोले बैठा है। कोई आडंबरी के नाम से तो कोई ढोगांबरी के नाम से। इन सबका एक ही उद्देश्य है अपने एरिया का साहित्यिक डॉन बनना। इन सबको देखने के बाद दाऊद इब्राहिम मुझे महापुरुष सा प्रतीत होता है। हो न हो उसे डॉन बनने की प्रेरणा इन्हीं कुकुरमुतिया साहित्यिक संस्थाओं से मिली होगी।
मैं दाऊद इब्राहिम की बहिन हसीना पार्कर जैसी हूँ। मेरे बिना मेरे एरिया में कोई साहित्यिक आयोजन तो क्या उसके बारे में सोच भी ले तो तुरंत उसके सपने में आकर उसकी हालत पतली कर देती हूँ। किंतु इधर कुछ दिनों से मेरे ही चेले चपाटों ने मेरी देखा-देखी अलग से दुकानें खोल रखी हैं। एक तरह से मेरे एकछत्राधिपत्य की बैंड बजा दी है। चूँकि मेरी दुकान सबसे पुरानी है, इसलिए मेरे ग्राहक रूपी साहित्यिक सदस्यों की कोई कमी नहीं है। इनमें तीन-चार मेरे सबसे विश्वस्त हैं। इनके बिना मैं कोई कार्य नहीं करती।
एक तरह से ये मेरे गुर्गे हैं, जो दूसरी दुकानों में आने-जाने वाले ग्राहकों की जानकारी मुझसे साझा करते हैं। पिछले दिनों ढोगांबरी साहित्यिक संस्था की टुनटुना देवी ने राष्ट्रीय स्तर पर अलग-अलग विधाओं के लिए बिस्कुट के टुकड़े रूपी सम्मान बांटे जिससे इनकी दुकान पर नए-नए ग्राहकों की भीड़ उमड़ पड़ी। कुछ ग्राहक तो मेरी ही दुकान के थे। यह तो सीधे-सीधे मेरी कोर कांपिटेंसी में हमला बोलने जैसा था। मुझसे यह देखा नहीं गया। कल की टुनटुना देवी चली है दादी को खांसी सिखाने।
मैं यह सब करने में नंबर वन हूँ। शेर को शिकार, चील को उड़ना और मुझे आयोजन करना कोई नहीं सिखा सकता। यह कला तो मैं जन्मजात जानती हूँ। वह भूल रही है कि साधुन-दासी-चोरन-खांसी, प्रेम बिना के हासी। खुसरो वाकी बुद्धी विनासे, रोटी खाये जो बासी। यहाँ मेरे प्रपंच उस बासी रोटी के समान है जिसे खाकर टुनटुना देवी का दिमाग खराब हो गया है।
मैं चाहती तो तभी उसका मुँहतोड़ जवाब दे सकती थी,लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया।मेरे चेले चपाटों ने मुझे सलाह दी कि ईंट का जवाब ईंट से, सम्मान का जवाब सम्मान से देने में ही समझदारी है। यही सब सोचकर मैंने भी राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान देने की योजना बनाई। मेरी भजनमंडली खड़ताल लिए मुझे चने के झाड़ पर चढ़ाने लगे। मेरी भजनमंडली की खास बात यह है कि वे साहित्य की समझ भले न रखें मेरे सम्मान में तनिक कमी नहीं आने देते।
साहित्य का क्या है इधर-उधर से कॉपी-पेस्ट कर के भी लिखा जा सकता है, लेकिन तलुवाचाटुकारिता हर किसी के बस की बात नहीं है। ये तो ऐसे हैं कि मैं जब कहूँ तब मेरे तलुवे चाटने के लिए तत्पर रहते हैं। अब तो मैंने ऑनलाइन संदेशिए को अपना मीडिया सलाहकार नियुक्त कर लिया है। वह तो ऐसा बंदा है जो मेरे कहने पर भैंस उड़ी तो भैंस उड़ी कहकर तुरंत वाइरल कर देता है। यह अलग बात है कि उसे मेरी भजनमंडली के सिवाय कोई दूसरा पढ़ता भी नहीं है। हाँ कुछ व्यंग्य के रसिक होते हैं जो आए दिन मसाला ढूँढ़ते रहते हैं उनके लिए यह सामग्री किसी बटेर से कम नहीं होती।
हाँ तो इस बार हमने ऐसे मुख्य अतिथि का चयन किया जो कि पेट दर्द देने पर सिर दर्द की गोली देने में विश्वास रखता था। मतलब आन कार्यक्रम के लिए कान जैसा। हमें तो ऐसा अतिथि चाहिए था जो कि हमारे कार्यक्रम में खेत के बीच में नचरबट्टू की तरह हो। भले यह कार्यक्रम उससे संबंधित न हुआ तो क्या हुआ आकर हमारी नजर उतारकर तो जाएगा। हम एक्स के बारे मे बात करेंगे वह वाई के बारे में बात करेगा। हम अलाना कहेंगे वह फलाना समझेगा। वह हमसे खुश हम उससे खुश। सच तो यह है कि मुख्य अतिथि का चयन कार्यक्रम के हिसाब से नहीं फोटोजेनिक के हिसाब से होना चाहिए। भले मुख्य अतिथि के बारे में चर्चित समाचार कुछ न छापे। क्या फर्क पड़ता है। मैं क्या किसी रियासत से कम हूँ।
मेरे पास आश्रयप्राप्त दरबारी कवि, लेखक और पत्रकार हैंं। जो मेरे एक चुटकी बजाने पर सामने वाले को धर दबोचने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। वे अधिक की चाह भी नहीं रखते। वे पाप बेचारे थोक में लाए गए शॉल से खुद को ढका देखना चाहते हैं। जब तक वे हैं तब तक मेरा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

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