कला-साहित्य

बचपन

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

रेवती कई घरों में काम करती थी, सुबह से आठ, दस घंटे वो बाहर ही बिताती थी। इसलिए सब संभव हो पाता था कि घर मे दो बेटियां थी जो बचपन से ही हर काम मे निपुण थी। पर रेवती ने प्रण किया था कि मेरी बेटियां दुसरो के घर का काम नही करेंगी। उसने जमाने की कड़वाहट झेली थी।

सुबह ही जोर से बोली, “दीपा, मैं काम पर जा रही हूं, तुम दोनो मिलकर घर का काम कर लेना।”

“जाओ माँ, चिंता न करो।”

सिमरन और लालू आराम से सो कर उठे, तब तक दीपा घर साफकर रसोई का सब काम कर चुकी थी।

बारह वर्षीय दीपा एकदम से उम्र से कहीं अधिक बड़ी हो गयी थी, दीदी जो थी सबकी।

“उठो, रे बच्चो, आज स्कूल बंद है तो सोते ही रहोगे क्या?”

दोनो को उठाया, नाश्ता कराया तभी बाहर से टप टप बूंदों की आवाज़ ने सबका ध्यान आकर्षित किया।

“दीदी, हम दोनों बाहर जाएं, गली के सब बच्चे बारिश में भीग रहे।”

“जाओ, रे, जरूर जाओ, बारिश में नाचो, गाओ, कूदो, बचपन को जी लो।”

और मन मे सोचने लगी, जिस दिन बचपन के ये पल जवानी में बदलेंगे, बंदिशों की जंजीरे तुझे जकड़ लेंगी, जा, जी ले सिमरन, अभी समय है।

स्वरचित

भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलोर

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