कला-साहित्य

विदाई

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

जब पहली बार तुम मेरे घर आयी

बहू बनकर,

मेरा कलेजा खुशी से चौड़ा हो गया।

ऑंखें खुशी से भर आयीं।

जब बेटे के साथ सभी परछ रहे थे

तो मैं तुम्हें ही अपलक निहार रही थी।

जब दौरी में तुम धीरे-धीरे पग

डाल रही थी,

तो मैं सहारा देने के लिए तुम्हारे साथ

चल रही थी।

हालांकि मैं अच्छी तरह जानती हूं

कि मेरा बेटा तुम्हारे सहारे के लिए

सक्षम है।

मुंह दिखाई के समय मैं तुम्हारे साथ

साये की तरह खड़ी रहती थी कि

तुम्हें कहीं कुछ कमी न लगे।

तुम्हारे हर रश्म में मैं सदा तुम्हारे

साथ रही जिससे तुम उत्साहित रहो।

तुम्हारा पहली बार रसोई में जाना

पूरे परिवार को रोमांचित कर गया था,

मैं तो तारीफों के पुल बांधना चाहती थी

पर समय की नज़ाकत को सज्ञझते हुए

चुप ही रही।

तुम्हारा चलना,बैठना,हंसना,बतियाना,

महावर लगाना, सजना-संवरना

सब पर मैं रीझ जाती हूं।

वो पायल की छम-छम, चूड़ियों की

खन-खन पूरे घर को गुलजार करती थी।

आज तुम्हारी पहली विदाई थी,

तुम खुश थी पर मेरे अन्दर कुछ टूट रहा था।

तुम आज अपने माता-पिता, भाई-बहन,

सखी-सहेलियों से मिलोगी।

उनका घर गुलजार हो जायेगा

और मेरा घर खाली।

मुझे मालूम है कि

जल्दी ही तुम फिर लौटोगी,

तुम्हारा इन्तज़ार रहेगा।

फिर भी तुम्हारी कमी

मुझे और पूरे परिवार को खल रही है

तो बेटा कैसे रहेगा ?

मैं इसी सोच में हूं।

अनुपम चतुर्वेदी,सन्त कबीर नगर,उ०प्र०

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